बस अड्डे की भीड़ में
कुछ खोया हुआ सा
ढूँढ़ने की कोशिश में
भटकते हुए
अचानक कानों में आवाज आई
नैनीताल... नैनीताल...
जैसे किसी ने पुकारा हो
मिल गया हो उसे मेरा सामान
तुम्हारा नाम...
मैंने दी सहमति
बैठा बस में
लगा कि तुमसे मुलाकात बहुत नजदीक है।
घूमती रेंगती चढ़ती सड़कें
तुम्हारी अटखेलियों जैसी लगती हैं,
मानों मैं चक्कर लगा रहा
तुम्हारे इर्द गिर्द
एक झलक पा जाने के लिए
और आ जाता कोई नया दृश्य
जैसे तुमने अचानक से पलट के देख लिया हो।
चोटियों को अपने आगोश में
लेने को आतुर, बादल
अपनी उसी नादानी की तरह हैं
जैसे ना-नुकुर के बीच
तुमको आगोश में लेने की जद्दोजहद
फिर सुकून
और अगले पल ही
तुम भाग जाती हो बहाना बनाकर
जैसे तुम्हें कहीं बरसने जाना हो।
दूर से दिखती चट्टानों पर बर्फ
जैसे तुम्हारी आँखों की सफेदी हो
जहाँ उतर कर ठंडक मिलती है
डूब जाने का मन करता है
पर कमबख्त
जिंदगी है
पलकें हैं
रास्ते हैं
झपकते ही, कुछ और हो जाता है।
तुम झपकया न करो
मैं एकटक बर्फ की ठंडक समा लेना चाहता हूँ।
तुम ताल हो, तल्ली और मल्ली की तरह
जिसके किनारे, सहारे
बैठकर तुममे खुद को निहारता हूँ।
सुकून देती हो तुम
जाने नहीं देती
अपने मोह-पाश से
लगता कि ताल के किनारे की शाम
तुम्हारी आँखों के किनारे का काजल है
जो डूबती पलकों में भी खूबसूरत है।
विदा होना तुमसे
जैसे छूटा जा रहा हो सब
खाली हुआ जा रहा है जीवन
जैसे आ गया हो वीरान, सुनसान सा
भटकाव जीवन का।